चौरस्‍ते पर स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र

चौरस्‍ते पर स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र

डॉक्‍टर अनूप मिश्रा

भारत के स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र को लेकर आजकल बहस जोरों पर है क्‍योंकि हालिया कुछ घटनाओं ने लोगों का ध्‍यान इस ओर खींचा है। इसमें निजी और सरकारी दोनों क्षेत्र शामिल हैं। अस्‍पतालों की गतिविधियों की सूक्ष्‍म समीक्षाएं हो रही हैं और इसमें भी निजी क्षेत्र को शैतान साबित करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है और इस मुद्दे को महज मुनाफाखोरी और हेल्‍थकेयर के प्रावधानों और वित्‍तीय मामलों तक सीमित किया जा रहा है।

समुचित जांच प्रक्रिया के अभाव में ऐसा पर्सेप्‍शन नकारात्‍मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है और ऐसे में जन दबाव के कारण आम लोगों और मीडिया का डॉक्‍टरों और अस्‍पतालों के खिलाफ हमले का रास्‍ता खुल जाता है। इन मामलों में चिकित्‍सीय दृष्टिकोण, मामले की गंभीरता और अस्‍पतालों का पक्ष जानने तक की जरूरत नहीं समझी जाती। हालांकि एक समग्र समाधान तक पहुंचने के लिए जरूरी है कि मामले के अलग-अलग पहलुओं और परिदृश्‍यों को समझा जाए और उसपर विचार किया जाए।

जहां तक इलाज और दवाओं के लोगों के पहुंच में होने, उनके नियमन और मूल्‍य नियंत्रण का सवाल है तो इनकी वित्‍तीय व्‍यवहारिकता के बारे में कोई भी फैसला इन सेवाओं और वस्‍तुओं के ऑपरेशनल कॉस्‍ट का गहराई से विश्‍लेषण करने के बाद ही लिया जाना चाहिए।

निजी अस्‍पताल आधुनिक और लगातार अपडेट होने वाले मेडिकल इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर के साथ अत्‍याधुनिक तकनीक का इस्‍तेमाल करते हैं जिन्‍हें लगातार अपग्रेड करने की जरूरत होती है। संभव है कि इन अस्‍पतालों का राजस्‍व अधिक हो मगर जहां तक लाभ का सवाल है तो वो अपेक्षाकृत कम ही होता है। जरूरत इस बात की है कि विश्‍व स्‍तरीय स्‍वास्‍थ्‍य सेवा और मरीजों की खर्च वहन करने की क्षमता के बीच एक बेहतर संतुलन बनाया जाए। मरीजों को ये समझने की जरूरत है कि यदि सभी अंतरराष्‍ट्रीय मानकों को पूरा किया जाए तो भारत में उच्‍च स्‍तरीय आईसीयू केयर का खर्च अपेक्षाकृत बहुत अधिक होगा मगर विकसित देशों, उदाहरण के लिए अमेरिका के मुकाबले ये स्‍पष्‍ट रूप से बहुत कम है।

भारतीय निजी हेल्‍थकेयर सेक्‍टर इस मामले में घाटे वाला क्षेत्र है कि यह विश्‍व स्‍तरीय गुणवत्‍ता वाली सेवा अफोर्डेबल मूल्‍य पर उपलब्‍ध करा रहा है। पूरी दुनिया को देखें तो भारत में निजी अस्‍पतालों में चिकित्‍सा का खर्च दूसरों के मुकाबले बेहद कम है और ये बात देश में बढ़ रहे मेडिकल टूरिज्‍म में भी दिखती है।

दुर्भाग्‍य से देश में कई ऑपरेशनल और रेगुलेटरी कमियों की वजह से स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र, जिसमें सरकारी स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र भी शामिल है, में छिपे हुए खर्चे बहुत अधिक हैं। यदि सरकारी अस्‍पताल गुणवत्‍ता स्‍तर और अंतरराष्‍ट्रीय मानकों का पालन करें तो उसके लिए जरूरी खर्चों का दबाव शायद उनकी स्‍वास्‍थ्‍य सेवा को भी किफायती न रहने दे। सौभाग्‍य से देश के सबसे बड़े स्‍वास्‍थ्‍य संस्‍थानों (उदाहरण के लिए दिल्‍ली में एम्‍स, जिसे सरकार एक साल में 1300 करोड़ रुपये अपने पास से देती है) के ऐसे खर्चों का वहन सरकार करती है। मरीजों पर इसका बोझ नहीं डाला जाता है। दूसरी ओर निजी अस्‍पतालों को अपने ऐसे सारे खर्चे अपने संसाधनों से जुटाने होते हैं।

दूसरी बात, सरकारी अस्‍पताल आज भी सुविधाओं और मेडिकल पेशेवरों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। जो मेडिकल पेशेवर हैं भी उनपर काम का भारी दबाव है। इन अस्‍पतालों तक पहुंचने में दिक्‍कतों, निगरानी का अभाव, मानकीकरण का अभाव, सूचना देने में कमी और एक मरीज-एक डॉक्‍टर के सिद्धांत का पालन नहीं हो पाने के कारण इनकी सेवाएं बुरी तरह प्रभावित होती हैं। इसलिए भले ही निजी अस्‍पतालों में पैसे ज्‍यादा खर्च होते हैं मगर गांवों से लेकर शहरी भारत तक निजी अस्‍पतालों के लिए लोगों का रुझान बढ़ रहा है और ये बात राष्‍ट्रीय सैंपल सर्वे समेत कई सर्वेक्षणों में साबित हुई है।

इसलिए जहां एक सीमित मात्रा में नियमन का स्‍वागत किया जाना चाहिए वहीं हमारे नीति निर्माताओं और नियामक प्राधिकरणों को ‘निजी स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र को उसकी औकात’ बताने जैसा रवैया नहीं अपनाना चाहिए। ऐसी प्रतिक्रियाएं दरअसल लोकप्रिय जनमत के कारण होती हैं और वो भी ज्‍यादातर इसलिए क्‍योंकि अधिकारी ‘कम समय में कुछ कर दिखाने’ के दबाव में होते हैं। साथ ही, अस्‍पतालों की अक्षमता या कदाचार जैसे आरोपों पर उन्‍हें बंद कर देने या उनका लीज कैंसल कर देने जैसा सख्‍त कदम उठाने से पहले लोकतांत्रिक तरीकों पर आधारित अभियोग प्रक्रिया और पर्याप्‍त जांच जरूर किया जाना चाहिए। अन्‍यथा, उत्‍पीड़न का डर गैर उत्‍पादक नतीजे दे सकता है जिसकी परिणति इलाज में देरी और देखभाल में रुकावट जैसे मामलों में हो सकती है।

किसी गंभीर परिणाम से डरा हुआ डॉक्‍टर बीमारी के बारे में अच्‍छे से संतुष्‍ट होने के लिए मरीज के ज्‍यादा टेस्‍ट करा सकता है जिसमें महंगे टेस्‍ट भी हो सकते हैं। इसके अलावा वो रक्षात्‍मक दवाइयां इस्‍तेमाल कर सकता है। ऐसे में मरीज का खर्च सीमित होने के बदले और बढ़ सकता है। अगर और बुरी स्थिति के बारे में सोचें तो डॉक्‍टर डेंगू जैसी बीमारी में और उसमें भी भले ही मरीज की तबीयत स्थिर हो, मरीज का केस हाथ में लेने से ही इनकार कर सकता है और मरीजों को सरकारी अस्‍पताल में रेफर कर सकता है। ऐसे में मरीज के इलाज में तो देरी होगी ही, पहले से ही मरीजों के दबाव से जूझ रहे सरकारी अस्‍पतालों पर और बोझ बढ़ जाएगा।

एक ऐसे समय में जबकि हमें ज्‍यादा से ज्‍यादा डॉक्‍टरों की जरूरत है, हमारे देश में च‍िकित्‍सा का पेशा संकट का सामना कर रहा है। अमेरिका और ब्रिटेन के उलट हमारे देश के तेज दिमाग वाले बच्‍चे, जिनमें डॉक्‍टरों के बच्‍चे भी शामिल हैं, डॉक्‍टरों पर बढ़ते हमलों को ध्‍यान में रखकर इस पेशे में शामिल होने के ज्‍यादा इच्‍छुक नहीं दिखते। गंभीर बीमारियों से जुड़े कई विशेषज्ञ मरीजों के परिजनों द्वारा की जाने वाली लगातार आलोचना से विचलित होकर या तो रिटायर होने या कोई दूसरा काम करने के बारे में सोचने लगे हैं।

ऐसा ट्रेंड रहा तो भविष्‍य में भारतीय डॉक्‍टर कम प्रतिभावान होंगे और इसका नतीजा इलाज में और अधिक गलतियों के रूप में सामने आएगा। इससे भी बढ़कर, कॉरपोरेट अस्‍पतालों में नई से नई तकनीक, इनोवेशन या तयशुदा निवेश का आना थम जाएगा।

महत्‍वपूर्ण बात ये है कि सरकार को खराब हालत में पड़े सरकारी अस्‍पतालों की दशा सुधारनी होगी और इसमें भी खासकर कार्डियोलॉजी और आईसीयू जैसे विभागों पर ज्‍यादा ध्‍यान देना होगा। साथ ही सरकार को हेल्‍थकेयर सेक्‍टर पर एकतरफा फैसला लेने की बजाय सभी सहभागियों के साथ पारदर्शिता और किफायती इलाज के बारे में बात शुरू करनी चाहिए। इससे स्‍वास्‍थ्‍य संबंधित नियमों के बारे में विभिन्‍न स्‍तरों पर नीतिगत आमराय बनाना संभव हो पाएगा।

इससे भी बढ़कर, नियामकों को मरीजों को दी जाने वाली जानकारियों और निर्णय लेने के स्‍याह पक्षों के बारे में चीजें स्‍पष्‍ट रूप से सामने रखनी होगी। उदाहरण के लिए जीवन समाप्ति का निर्णय, डॉक्‍टर की सलाह के विपरीत मरीज द्वारा अस्‍पताल छोड़ने का निर्णय और जेनरिक दवाओं (इनमें से एक तिहाई बेहद खराब गुणवत्‍ता की होती हैं जो और अधिक मौतों का कारण बन सकती हैं) के इस्‍तेमाल का निर्णय।

इंडियन हेल्‍थकेयर मार्केट रिसर्च रिपोर्ट 2016 के अनुसार हमारे देश का हेल्‍थकेयर सेक्‍टर रोजगार देने और राजस्‍व उपार्जन के मामले में दुनिया के सबसे बड़े हेल्‍थकेयर सेक्‍टरों में शुमार है। सालाना 16.5 फीसदी की दर से बढ़ रहा ये सेक्‍टर साल 2020 तक 280 अरब डॉलर का सेक्‍टर बन जाएगा। दूसरी ओर केंद्र सरकार की साल 2017 की राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य नीति स्‍वास्‍थ्‍य क्षेत्र पर सरकार के खर्च को जीडीपी के 1.4 फीसदी से बढ़ाकर 2.5 फीसदी करने की बात कहती है।

निजी क्षेत्र का विशाल इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर नेटवर्क और ज्‍यादा से ज्‍यादा योग्‍य लोगों को तैयार करने की क्षमता का लाभ उठाना चाहिए और इसके लिए ज्‍यादा पूंजी प्रवाह, निवेश, कोलेबोरेशन और निजी-सरकारी भागीदारी हर स्‍तर पर होनी चाहिए तभी हम देश की गुणवत्‍ता पूर्ण स्‍वास्‍थ्‍य सेवा की बढ़ती हुई मांग को पूरा कर पाएंगे।

(लेखक दिल्‍ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्‍थान के मेडिसीन विभाग के पूर्व अध्‍यक्ष और प्रोफेसर रहे हैं और वर्तमान में दिल्‍ली स्थित फोर्टिस सी डॉक अस्‍पताल के चेयरमैन हैं। उनका यह आलेख द टाइम्‍स ऑफ इंडिया में प्रकाशित हो चुका है।)

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